google-site-verification=zg3Xci58-908fztFVfw5ltDDK7t7Q250EoMrB9rswdA भारत की चीन के तरफ नीतियां। बीजेपी vs कांग्रेस –एक साक्षात्कार।

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भारत की चीन के तरफ नीतियां। बीजेपी vs कांग्रेस –एक साक्षात्कार।

 भारत और चीन – ये दोनो देश काफी लंबे समय से एक दूसरे को रणनीतिक रूप से , आर्थिक रूप से तथा कूटनीतिक रूप से एक दूसरे को पीछे करने की कोशिश में लगे हुए है , इसी वजह से कई जगह ये दोनो देश एशियन देशों में अपने प्रभुत्व को दर्शाने का कोई मौका नहीं छोड़ते।


कई एक्सपर्ट्स तो यहां तक मानते है कि आने वाला समय इन्ही दो देशों का होने वाला है। लेकिन वही अगर देखा जाए तो आज इन दोनो देशों में बहुत अंतर दिखाई देता है।

अगर बात की जाए इन दोनो देशों की सभ्यताओं की तो ये दोनो देशों की सभ्यताएं काफी पुरानी सभ्यताओं में से एक है।

1947 में भारत को ब्रिटिश साम्राज्य से आजादी मिली और कांग्रेस पार्टी ने अपनी सरकार बनाई।

वही बात करे चीन की तो 1949 में चीन में गृहयुद्ध समाप्त होता है और कम्युनिस्ट पार्टी सत्ता संभालती है।

शुरुआत में तो भारत ने चीन पर अंधा भरोसा दिखाया , ये तब था जब सारे वेस्टर्न देश चीन को पसंद नही करते थे। ये सभी देश चीन को यूएनएससी में आने का विरोध करने लगे और चीन को दुनिया भर से आइसोलेट कर दिया। 

                  ( Image Source :- Thediplomant.com)

भारत , नेहरू की अध्यक्षता में चीन को यूएन में स्वीकार्य करने वाला पहला देश था जिसने चीन की यूएन में सदस्यता का समर्थन किया। वही भारत को आजादी के बाद यूएनएससी का परमानेंट सदस्य बनने का ऑफर भी मिला था पर भारत ने इसमें चीन की वकालत की ओर चीन को परमानेंट सदस्य बनने में मदद की। फिर यही चीन है जो आजतक भारत के खिलाफ खुल कर वीटो करता है। चीन ही आज भारत के यूएन का परमानेंट सदस्य ना बन पाने का मुख्य कारण भी है।

                       ( Source :- The newyorktimes.com)

1950 में चीन ने तिब्बत पर हमला कर इसपर अवैध कब्जा कर लिया। और भारत ने हमेशा की तरह नेहरू की अध्यक्षता में इसका कोई विरोध दर्ज नहीं करवाया। फिर 1954 में भारत ने चीन के साथ पंचशील समझौते पर हस्ताक्षर किए , जिसके प्रमुख बिंदु कुछ इस प्रकार थे —

                             ( Source :- Wikipedia)


जब चीन ने तिब्बत पर कब्जा किया तो आधिकारिक तौर पे चीन की भारत के साथ सीमा लग गई। इसी के चलते चीन ने 1956 में लद्दाख पर से एक सड़क का निर्माण किया जो चीन को तिब्बत वाले इलाके से जोड़ता था। ये पहली बार था जब भारत ने चीन के खिलाफ विरोध दर्ज करवाया। पर शायद भारत ने बहुत देर कर दी थी। इसी के बाद भारत–चीन के रिश्तों में कड़वाहट आ गई। सन् 1959 में तिब्बती लोगो ने चीन का विरोध करना शुरू किया , और चीनी सरकार से इसे बहुत सख्त तरीके से संभाला । करीब 10 लाख लोग चीनी सरकार ने मरवा दिए। इसके बाद दलाई लामा तिब्बत से भाग कर भारत में आ गए और भारत ने उन्हे शरण दी। 

1960 में चीन से झाओ ली भारत आए और भारतीय सरकार को एक प्रस्ताव दिया जिसके अनुसार भारत को अरुणाचल प्रदेश पर अधिकार और लद्दाख को चीन का हिस्सा बनाने को कहा। भारत ने फिर इसका विरोध किया और अरुणाचल प्रदेश और लद्दाख में जहां भारत सिर्फ पेट्रोलिंग करता था वहां उसने पुलिस चौकियों का निर्माण करना प्रारंभ किया। ये वही साल था जब पहली बार भारत ने चीन के खिलाफ फॉरवर्ड पॉश्चर लिया। और चीन को हमेशा की तरह ये पसंद नही आया , क्योंकि आजतक किसी देश ने चीन को रोकने का साहस नहीं किया था। 

                          ( Image source:- the print )


फिर 1962 में चीन ने भारत पर आक्रमण कर दिया और पंचशील समझौते को तोड़ दिया। नेहरू ने ये कभी नहीं सोचा था कि चीन भारत के साथ एक फुल फ्लेज्ड वॉर करेगा, और भारत चीन से यह युद्ध हार गया।


जब चीन ने भारत पर आक्रमण किया था तब नेहरू भारत में नही थे , उनकी जगह उस समय के डिफेंस सेक्रेटरी वी के कृष्णन थे। जब युद्ध हुआ तो उन्हे कुछ समझ नहीं आया कि क्या करना है? वो बहुत ज्यादा असमंजस में थे, उन्हे कोई मिलिट्री का ज्ञान नहीं था और कोई निर्णय नहीं ले पा रहे थे। परिणामवश भारत से युद्ध चीन से हार जाता है।


जब हार की समीक्षा होती है , तो कई खामियां उजागर होती है। उनमें सबसे बड़ी खामी , वायुसेना का कोई इस्तेमाल नहीं करना पाया जाता है। जबकि यूएस समय भारत की वायुसेना चीन से कई बेहतर थी।  यूएस तथा अन्य पश्चिमी देश की भी एक रिपोर्ट के अनुसार इस बात को मानते है , कि अगर भारत ने उस समय वायुसेना का इस्तेमाल किया होता तो आज हालत कुछ और होते। 


इस युद्ध के कुछ समय पहले ही अमेरिका के राष्ट्रपति जॉन एफ कैनेडी ने नेहरू को यूएस तथा अन्य यूरोपियन देशों के साथ एलाइन होने का भी ऑफर दिया था। जिसके बाद यूएस भारत को न्यूक्लियर बॉम्ब देने को राजी हो गया था। पर हमेशा की तरह नेहरू की चीन के प्रति अंधा विश्वास के चलते, भारत ने इसे ठुकरा दिया। अगर भारत इस ऑफर को मान लेता तो फिर चीन भारत पर हमला करने के बारे में सोच भी नही पाता , क्योंकि तब भारत के न्यूक्लियर का इस्तेमाल करने का डर चीन को भी होता।

इन सभी के चलते हमें ये बात पता चलती है , कि नेहरू की पॉलिसी चीन की तरफ काफी नरम थी।

नेहरू के बाद लाल बहादुर शास्त्री प्रधानमंत्री बनते है , पर इससे भी भारत को कोई लाभ नहीं होता। बल्कि 1965 की जंग में चीन पाकिस्तान का साथ देता है। और फिर भारत को नुकसान होता है।



शास्त्री जी के बाद भारत की प्रधानमंत्री बनती है , इंदिरा गांधी जी। इन्ही की कार्यकाल में भारत और चीन एक बार फिर आमने सामने हुए। ये स्टैंड ऑफ सिक्किम–तिब्बत की बॉर्डर पर हुआ था। पर इस बार पहली बार भारत ने आक्रामक रुख अपनाया और यहां चीन को भारत से अपनी पहली हार मिली। इसी के साथ भारत ने 1962 की जंग का भी बदला लिया। जब 1974 में भारत ने न्यूक्लियर टेस्ट किया तो  चीन ने इसका पुरजोर विरोध भी किया। 

जब 1971 की जंग में उस समय इंदिरा गांधी जी ने तो चीन को पाक का साथ न देने के लिए धमकी तक दे दी थी , कि अगर चीन बीच में आया तो भारत स्टेट ऑफ मल्लका का रूट चीन के लिए बंद कर देगा।


इंदिरा जी के निधन के बाद , भारत के पीएम पद को राजीव गांधी जी संभालते है। और हमेशा की तरह एक बार फिर चीन भारत आमने सामने होते है। पर इस बार राजीव गांधी चीन जाते है और कुछ समझौते कर इसे टाल देते है। राजीव की भी पॉलिसी चीन को लेकर काफी नरम दिखाई देती है।

फिर 1998 में पहली बार बीजेपी की सरकार बनती है , और अटल बिहारी वाजपेई प्रधानमंत्री बनते है। शुरुआत में अटल जी भी चीन की तरफ नरम ही रहते है। बावजूद इसके चीन भारत के सफल न्यूक्लियर टेस्ट का फिर से विरोध करता है। इसी के साथ चीन पाकिस्तान की कारगिल में भी सहायता करता है।


फिर 2004 में मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री बनते है । लोग कहते है कि मनमोहन सिंह जी ने आते ही फिर से चीन की तरफ भारत की पॉलिसी नेहरू के समय वाली शुरू कर दी थी। उन्ही के कार्यकाल में चीन ने फिर से अरुणाचल प्रदेश को अपना हिस्सा बताना शुरू कर दिया। चीन वर्ल्ड बैंक से अरुणाचल प्रदेश में विकास के लिए भारत द्वारा लिए जाने वाले लोन पर भी कड़ा विरोध दर्ज करवाने लगा। चीन ने इसके अलावा भारत का हर जगह कड़ा विरोध करना शुरू कर दिया। तब कांग्रेस सरकार ने इसे काउंटर करने की जगह चीन के साथ व्यापार बढ़ाने पर ध्यान केंद्रित करना शुरू कर दिया। अगर सही मायनों में देखा जाए तो कांग्रेस इन 10 सालों की सरकार में चीन की पिछलग्गू बन कर रह गई। 2004 में सरकार बनने के कुछ समय बाद ही चीन ने राजीव गांधी फाउंडेशन में पैसे दिए।


इसका किसी के पास कोई रिकॉर्ड नहीं था। यहां तक की सुप्रीम कोर्ट तक सरकार से यह पूछती रह गई, ‘ कि भैया कौनसे एमओयू के तहत आप डील साइन कर रहे है? ’ 


फिर 2014 में भारत के प्रधानमंत्री पद पर नियुक्त होते है नरेंद्र मोदी और 2013 में जिनपिंग चाइनीज कम्युनिस्ट पार्टी (सीसीपी) की कमान संभालते है। 2014 में ही इन दोनो प्रधानमंत्रियों की मुलाकात ब्रिक सम्मेलन में हुई। फिर 2016 तक सबकुछ ठीक रहता है पर फिर अचानक 2016 में चीन फिर से डोकलम पर आकर बैठ जाता है। चीन के साथ फिर ये डोकलाम विवाद करीब 73 दिनों तक चलता है , लेकिन फिर चीन को पीछे हटना पड़ता है।

ये सब ठीक हुआ ही था कि अचानक जब कोरोना महामारी दुनिया में फैली तब अवसर का लाभ उठा कर चीन गलवान घाटी में अचानक भारतीय सुरक्षाबलों पर हमला कर दिया। इस लड़ाई में भारत के 20 तथा चीन के 43 से ज्यादा सैनिक शहीद हो गए। लेकिन इस वाकए के बाद मोदी सरकार ने अचानक चीन की तरफ की अपनी नीति को बदल दिया। शुरू में अगर देखा जाए तो मोदी सरकार की नीति भी चीन की तरफ काफी नरम रही ओर इसी के चलते शायद इन दोनो नेताओ में 2014 से 2019 के बीच 18 मुलाकाते की , पर भारत ने इसका खामियाजा भी भुगता। 


गलवान के संघर्ष के बाद मोदी सरकार ने चीन की तरफ नीति में बदलाव लाते हुए कई चीन विरोधी निर्णय लेने शुरू किए। इसके तहत भारत ने  चीन के ऐप्स को बैन किया , चीन द्वारा भारत में एफडीआई निवेश को रोका , इंफ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट्स से चीन को बाहर का रास्ता दिखाया। इन सबके अलावा भारत क्वॉड ग्रुप का सदस्य बन गया। 



इससे चीनी अखबार ग्लोबल टाइम्स को बहुत मिर्ची लगी। तथा चीन ने एक के बाद एक भारत के कड़े फैसलो की निंदा करना शुरू कर दिया। ये वही ग्लोबल टाइम्स है जो किसी समय भारत के फैसले लेने की क्षमताओं पर प्रश्न चिन्ह लगाते हुए कहता रहा की भारत कभी चीन का बहिष्कार नही कर सकता । फिर जो हुआ वो दुनिया ने देखा। 


नरेंद्र मोदी जी ने इन सबसे आगे बढ़कर चीन की कम्युनिस्ट पार्टी की 100 वर्षगांठ पर चीन को बधाई नही दी , बल्कि दलाई लामा को उनके 86 वे जन्मदिन की बधाई दे दी। इन सबसे एक बात तो साफ है कि अब मोदी सरकार अपने रुख में चीन के प्रति काफी बदलाव लाई है।

तो सबसे आखिर में सवाल जो रह जाता है , क्या भारत चीन पर कभी भरोसा कर सकता है? 

तो इसका बहुत सीधा सा जवाब है , कि नही..... !! कारण आपके सामने है।

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